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लेखक की तस्वीरDr. Nilesh Kumar

अपने बच्चे की आंखों की देखभाल कैसे करें?

अपडेट करने की तारीख: 24 अक्तू॰ 2022


बच्चों की आंखें उनके उम्र के साथ ही बड़ी होती हैं जैसे की उनका शरीर. २ वर्ष तक ये बहुत तेज बढ़त होती है, और ८ वर्ष की उम्र तक उनकी आँखें लगभग व्यस्क के बराबर हो जाती हैं. ऐसे समय में उनकी आंखों के पर्दे (रेटीना ) भी परिपक़्व हो रहे होते हैं. इसीलिए अगर ८ वर्ष की उम्र तक पर्दे पर रौशनी सही तरीक़े से नहीं पड़े तो परदे अपरिपक्व रह जाते हैं, जिसका ईलाज बहुत कठिन है, और सफ़लता की गुंजाईश भी कम होती है.

मायोपिया (निकटदर्शीता) जहाँ देखे जा रहे वस्तु की छवि परदे के आगे बनती है, जिसे आम भाषा में दूर की दृष्टि की कमी समझा जाता है, पिछले कुछ सालों से बच्चों में महामारी की तरह फ़ैल चुका है. संक्रमण की बिमारी न होते हुए भी ये संक्रमण की तरह क्यों फैल रहा है, क्यों एक सर्वे के अनुसार कुछ सालों में जापान में सौ फीसदी बच्चे जो स्कूल में भर्ती होंगे उनको चश्मा लगा होगा, ये हमको समझना होगा. मायोपिया और इससे पीड़ित बच्चों की निकट के काम में रूचि एक अनंत चक्र की तरह हैं. एक उदहारण के लिए, अगर किसी बच्चे को -२ नंबर का चश्मा है तो उसे आँखों से ५० सेंटीमीटर के आगे की चीज़ें दुँधली दिखेंगी, जिससे उसकी दुनिया सिमट जायेगी. ऐसे में उसकी रूचि इतनी दूरी में हो सकने कामों में बढ़ेगी जैसे की पढ़ना, लिखना, मोबाइल पे कुछ खेलना या देखना। अगर चश्मे का इस्तेमाल न करते हों तो वो टीवी या कंप्यूटर मॉनिटर को बहुत नजदीक से देखेंगे ताकि उनको चीज़ें साफ़ दिखाई दें. नजदीक के काम को ज्यादा करने से आँखे आकार में बढ़ती हैं जिससे पर्दा काफी पीछे चला जाता है और आँखों का नंबर बढ़ जाता है. ऐसे में ये अनत चक्र चलता रहता है, जिसको तोड़ने का उपाय है मायोपिया का सामायिक और समुचित ईलाज। बच्चों में सबसे सफल उपाय है चश्मे का प्रयोग, जिससे रौशनी उनके परदे पे समुचित ढंग से पड़ती है और मायोपिया के सारे दुष्प्रभावों में कमी होती है. ये चश्मा सही नंबर का हो ये बहुत जरुरी है, और इसलिए हर ६ महीने में बच्चों के आँखों का टेस्ट जरुरी है.

पर जरुरी है इस बिमारी को सही समय पे पकड़ना. आम तौर पे बच्चे ६-७ साल की उम्र में ये समझते हैं की उनको स्कूल में बोर्ड साफ़ नहीं दिख रहा है, और तब तक काफी देर हो चुका होता है. अगर छोटा बच्चा आपके आवाज़ को सुन तो रहा है पर आपके चेहरे पे ध्यान से नहीं देख रहा है, अगर वो देखते वक़्त आँखों को सिकोड़ रहा है, अगर वो नजदीक रखे खिलोनों से खेल रहा है पर थोड़ी दूर पड़े हुए खिलौनों से नहीं, अगर वो बाहर के खेल में रूचि नहीं ले रहा है, स्कूल में टीचर अगर कहते हैं की वो खुद में खोया रहता है तो उसके आँखों की जांच की जरूर कराएं. सही समय पे चश्मा शुरू करने से इनकी दुनिया का दायरा ५० सेंटीमीटर से बढ़ के अनंत हो जाएगा और इनके संपूर्ण विकास में मदद मिलेगी.

सबसे ज्यादा जरुरी है इसको होने से रोकना. माँ बाप छोटे रोते हुए बच्चे को मोबाइल पकड़ा देते हैं, जिसको बच्चा ध्यान से देखता है. एक सीमा से ज्यादा ऐसे देखने से आँखों के आकर में बढ़त होने लगती है और बच्चे को मायोपिया हो जाता है. निर्देशानुसार, १८ महीने से काम के बच्चों को मोबाइल पे सिर्फ वीडियो कॉल के अलावा किसी भी तरह के उपयोग की मनाही है, १८-२४ महीने की उम्र तक बच्चों को धीरे धीरे मोबाइल से वाकिफ कराना चाहिए जिसमे सिर्फ उनके बौद्धिक विकास के ऍप का इस्तेमाल हो, और ५ वर्ष की उम्र तक ऐसे ऍप का इस्तेमाल करने के लिए बच्चे पूरे दिन में एक घंटे तक मोबाइल का इस्तेमाल कर सकते हैं. ६ वर्ष से बड़े बच्चे पढाई के लिए मोबाइल या आई-पैड का इस्तेमाल कर सकते हैं, बशर्ते इसका इस्तेमाल से उनके खाने, सोने या खेलने के समय में कमी न करें. साथ ही माँ बाप को बच्चों को बाहर खेलने भेजना चाहिए, उन्हें पार्क या ऐसी जगह ले जाना चाहिए जहाँ खुली ज़मीन और आसमान हो ताकि उनकी दूर की नजर भी इस्तेमाल हो. सही खान-पान, खेल कूद, व्यायाम और प्राणायाम से भी आँखों पे अच्छा प्रभाव आता है. ऐसी छोटी छोटी बातों का ध्यान रखने से उनको नंबर लगने या उसके बढ़ने की संभावना कम होती है.

आइये मिल के इस महामारी से मजूबत मुकाबला करें.


-डॉ नीलेश कुमार चिकित्सा निदेशक माधवी नेत्रालय

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